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पिता का जाना

पिता का जाना, तीन शब्दों का एक कठिन वाक्य। पर इससे भी ज़्यादा निष्ठुर है इस बात का एहसास।

और असल परेशानी तो ये है कि ये सत्य पिछले चालीस दिनों से हर पल मेरे साथ है।

यकीनन जीवन में ये अब तक का सबसे कठिन समय हैं। इतना ख़राब तो मुझे कभी नहीं लगा।


बीतें कल से आने वाले कल के बीच में वर्तमान की ये चौखट इतनी सकरी होगी, इस बाद का तो ज़रा भी अंदाज़ा ना था।

ख़ैर एहसास तो इस बात का भी नहीं था, कि पिता के ना होने से कैसे हर चीज़ को देखने के मायने बदल जाते हैं। वो हर चीज़ जो उनसे जुड़ी थी, और हर वो चीज़ भी जिसका उनसे कोई लेना देना भी नहीं था। बड़ी विचित्र है ये बात कि दुनिया का कोई भी ख़याल मुझे उनसे लाकर जोड़ देता है और बस उदास छोड़ जाता है।


इस बीच मैंने पलट डाली ना जाने कितनी किताबें जो छूती है इस मुद्दे को, बात करी उनसे जिन्होंने खोया हैं अपनों को और जानना चाहा हर वो दुख जो मेरे दुख से बहुत बड़ा है।

किताबे हमें दे तो जाती हैं एक अलग नज़रिया, पर उस चश्में को तो हमें ख़ुद ही लगाना है।

और जिनसे बात हुई उन्होंने यही समझाया कि बड़ा कठिन होता है ऐसा समय लेकिन जैसे जैसे समय बीतेगा दुख भर जाएगा। पर किसी ने ये नहीं बताया कि इस समय को काटना कैसे है।

कमाल की बात तो ये है कि कभी किसी ने इस एक पल और उनसे जुड़ी भावनाओं के बारे में कभी बात ही नहीं करी।

एक बार मैंने अपनी एक मौसी से पूछा था, कैसा था नाना के जाने के बाद का जीवन। तब बस बेकार की बातें ना करो कह कर चुप को गयीं थी वो। और अब जाके बताया कि वो कमी तो हमेशा रहेगी।

तो हर वो इंसान जिसने खोया है किसी अपने को, उसके भीतर का एक हिस्सा खोखला सा दिखता है अब मुझे।

मैं समझ नहीं पा रही दुनिया की कोई भी तालीम हमें क्यों नहीं रूबरू कराती है इस वास्तविकता से।
दुख तो इस बात का भी है, कि ख़ुद पिता ने ही नहीं बताया कि कैसे निकालना है ये जीवन उनके बिना।उन्होंने तो दी बेहतर शिक्षा अच्छा करियर बनाने के लिए, आज़ाद ख़याल जीवन जीने के लिए, और संस्कार प्रेम और समर्पण के लिए।और अब दुख के अलग अलग मोड़ पर हम सब गुम और गुमसुम खड़े हैं।

जब -जब पिता की तबियत बिगड़ती थी, तब अकसर मेरे मन में आया कि कैसा होगा वो पल जब कोई आके ये बताएगा की अब वो नहीं रहे। क्या कर रहे होंगे हम सब, कौन कहाँ होगा, कैसे हम उस समय को निकाल रहे होंगे। और चले जाना तो निश्चित था, पर तमाम मानसिक और भावनात्मक तैयारियाँ हमें तैयार नहीं कर पायी उस एक पल के लिए।

दुख बड़ा ही व्यक्तिगत मसला हैं। हर व्यक्ति की दूसरे से एक अपनी याद जुड़ी है, जो ना जाने कब याद आ जाए।

पर मुझे बस इतना पता है, कि दुनिया के तमाम दुखों से छोटा ही है मेरा दुख। फ़ोन में पिता के कुछ बत्तीस वीडियो और अस्सी तस्वीरे है पर मन में अनंत यादें और वो क़िस्से कहानियाँ जिन पर बात करके हम फिर उस खोखले हिस्से को भरेंगे। ना की मौन साथ कर बस समय काटेंगे।

समय लगेगा पर यक़ीन है, माँ एक दिन फिर नये कपड़े पहन कर मुस्कुरायेंगी और बोलेंगी “हमारी एक DP खीचों।” और आने वाला हर एक दिन बीते हुए इन चालीस दिनों से आसान होगा।

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