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सुलह



एक रोज़, दो प्याले चाय संग,

चलो कुछ तागे सुलझाते हैं|

बैठ के उसी बेंच पर,

चलो कुछ देर बतियाते हैं|


मेरी छुटपुट शिकायतों को,

तुम्हारी ख़याली उलझनों को,

एक सिरे से सुनते सुनाते है|


अकड़ को तुम अपनी,

ज़रा आराम देना|

जिद को मैं भी अपनी,

घर छोड़ आउंगी|

फिर इन गाठों को,

और पड़ने से बचाते हैं|


याद तो नहीं है,

पहले कहा छोड़ा था|

तब मैंने शुरू किया या तुमने,

इस तागे को मोड़ा था|


पर खट्टी लगी जो बातें,

गुड की चाय संग,

उसे ज़रा भुलाते हैं|

चलो कुछ धागे सुलझाते हैं|


बैठ के उसी बेंच पर,

खुद की खुद से,

एक सुलह करवाते हैं|




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