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अगर मिटाने का बटन न होता!

न जाने कितनी बार ख्याल आया कि लिख कर अगर मिटाने का बटन न होता तो कितना आसान होता ना I

वो सब जो तुमसे कहना है जिसे लिख कर मिटा देती हूँ, वो सब तुम तक लिख भेज दिया होता I


तुम नीली वाली कमीज़ में कितने अच्छे लगते हो| तुम्हारी बनी मटके वाली दाल में बड़ा स्वाद है I

मैं देख लेती हूँ जब भी तुम मुझे देखते हो, बस कुछ कहती नहीं I

उस दिन जब तुम मेरे जाने का सामान बांध रहे थे, मैं जाना नहीं चाहती थी| मोड़ पर खड़े होकर मैंने कितनी देर तुम्हारे फ़ोन का इंतज़ार किया, ताकि तुम बोलो कि रुक जाओ I मैं तुम्हें बाय करना भूलती नहीं, बस जान बूझकर तुम्हें करती नहीं I

बस ये ही नहीं, तुम तेज़ आवाज़ में बोलकर सही को गलत नहीं कर सकते I बस उससे मुझको रुला ही सकते हो | उस दिन तुम्हारे जन्मदिन का केक मैंने बना कर रखा था I पर तुम आये नहीं और मुझे कितना बुरा लगा था| तुम्हारे कुछ दोस्त मुझे बिल्कुल नहीं अच्छे लगते I वो वैसे नहीं हैं जैसे तुम हो, या जैसा तुम्हें लगता है I


कितना अलग होता न फिर सब I

क्योंकि सालों पहले वो जो पहली पंक्ति तुम्हारे लिए लिख कर मिटाई थी वो भी पहुँच गयी होती तुम तक I


फिर सोचा, तुम्हारे पास भी ऐसा कोई बटन होगा क्या? जो मौन कर देता है वो सब जो तुम्हें कहना था I और बदल जाते हैं तुम्हारे वो शब्द एक अमूर्त ख़ामोशी में I

गोल बिंदी तुम पर अच्छी लगती है I कितनी बार जैसा तुम बनाती हो वैसा आमलेट बनाने की कोशिश करी पर पता नहीं क्यों बनता ही नहीं I मैं समझ जाता हूँ कि कब तुम मेरे लिए लिखती हो, बस कहता नहीं Iतुम्हारा लटका चेहरा बता देता है तुम परेशान हूँ, बस पूछता नहीं I


अगर कह दिया होता जो तुम कहना चाहते हो, तो कितना अलग होता न फिर सब I

क्योंकि वो पहली पंक्ति जो तुम कहने से मौन कर गए, पहुँच जाती वो भी मुझ तक I



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