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निस्वार्थ होता है प्रेम

मैंने तो पढ़ा था निस्वार्थ होता है प्रेम,

पर न जाने स्वार्थ क्यों हुआ|

ये तो भरा रहा सुविधा से,

न निकला आराम के उस दायरे|

मैंने तो सुना था सहज होता है प्रेम,

पर न जाने असहज क्यों हुआ|

इसने तो चुने चेहरे अनेक,

झांकता रहा ओढ़ के पर्दे ढेर|

शायद पढ़ा सुना सब सच नहीं,

और जो सच होता,

तो श्वेत, सरल, निश्चल होता प्रेम|

फिर सही गलत भी न होता प्रेम|

हर बंधन से मुक्त,

सत्य होता प्रेम |






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