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एक पीली सुबह



एक पीली सुबह छोड़ जाउंगी,

ये ऊंचे पहाड़ और बहती नदी |

पहाड़ों पर गिरी बर्फ,

और नदी में बहता पानी भी |

देवदार की खुशबू, चीड़ की कतार

खिड़की से घुसता कोहरा,

बादलों का झुण्ड,

और पगडण्डी संग गुज़रती धार |

दे जाऊंगी मैं तुम्हें,

जंगलों से छनती धूप,

और ज़मीन में बिछी हरियाली |

वहां से गुजरती सड़के,

और उनमें गूंजती बातें |

रस्ते के सारे मील के पत्थर,

हर मोड़ जो कभी थे अपने घर |

जो छोड़ गयी,

तुम्हारे ये ऊंचे पहाड़ और बहती नदी |

तो साथ इनके रख लेना तुम,

गहरा सा वो सब कुछ

जिसे समझा अपना ही |


और उस पीली सुबह,

ले जाऊंगी मैं बस,

अपने कहे हर वो शब्द

और सुनी थी जो तुम्हारी ख़ामोशी`|

भर कर उसी झोले में,

जिसमें रखकर कुछ जोड़ी कपड़े,

तुम्हारे इन पहाड़ों पर,

यूँही चली आयी थी |

1 comment

1 Comment


pahadi_balak
May 14, 2020

तुमने आज फिर अच्छा लिखा है, तुमने पता है कि कैसा लगता है जब कोई चला जाता है, कुछ बातें अनसुनी थी, कुछ मुस्कुराहट ही अच्छी थी, पर हम वहीं है, और तुम भी वही हो। पीली धूप ही थी उस दिन भी, हवा ठंडी ही थी पहले की तरह, मुस्कुराहट थी, गम भी था, पर अफसोस यह था कि ऐसा क्यों हुआ :) शायद ऐसा ना हुआ होता, एक खत में कुछ लिखा होता, क्या वह खत अभी भी वही है? शायद शायद... शायद किसी को भी ना पता हो या फिर शायद पता हो कि गलत और सही की परिभाषा क्या है। :)

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