Episode 1
मेरे ख़्याल से सबसे कठिन होता है अपने माँ बाप को बूढ़ा होते हुए देखना.
मुझे आज भी याद है, हमारे जन्म दिवस पर माँ, पचास-पचास लोगों का खाना खुद ही अकेले बना लिया करती थी. अब सोचती हूँ तो बस ख़्याल आता है, काश उनकी उस दिन थोड़ी मदद मैं भी कर देती. चाहे सलाद काटने में हो, या बर्तन जमाने में. वैसे ही जैसे आज रसोईघर में वो मेरी मदद कर देती हैं. खाना पकाने का क्रेडिट तो मैं ले लेती हूँ, पर सारी तैयारी तो वो ही करती हैं. पर तब तो हमें खेलने से फ़ुरसत कहाँ थी.
आज जब माँ को देखती हूँ, ऊर्जा तो उनमें भरपूर है, पर शरीर अब साथ नहीं देता. थक जाती हैं वो, और इस बात का एहसास उनसे ज़्यादा मुझे कचोटता रहता है.
मेरे भीतर का एक हिस्सा है जो माँ- पापा को अभी भी 40-45 की उम्र का समझता हैं. इस हिस्से ने शायद आज के समय में एक पट्टी बांध रखी है. लेकिन कभी जब वह पट्टी थोड़ी खिसक जाती है, तो अपने माँ पापा को बूढ़ा होने से कष्टकारी एहसास मेरे लिए कुछ भी नहीं.
कितने दफ़े मैंने चाहा की अपनी युवाअवस्था की सारी ऊर्जा उनकी दवाई की शीशी में डाल दूँ और वो फिर मेरे मन के माँ बाबा जैसे हो जाएँ. ख़ैर ऐसा तो मेरी नींद में के ख़्वाब में ही शायद मुमकिन हैं. हक़ीक़त में मेरी माँ 63 और पिता 67 साल के हैं.
मेरी दिमाग़ में अक्सर एक गणित और चलती रहती थी, जब मैं यह विचार करती की जीवन के किसी भी मोड़ पर, मुझसे 8 और 3 वर्ष बड़े भाइयों ने माँ बाबा के साथ ज़्यादा वर्ष बिताया होगा. और यह ख़्याल अक्सर मेरा घर में सबसे छोटा होने पर मुझे खीज देता था. हालाँकि समय बीतते मुझे ये ज़रूर पता चला की बड़े भाई के मायने मेरे जीवन में कितने ज़रूरी हैं.
ख़ैर दिमाग़ तो ऐसे तर्क-वितर्क करता रहता है, और इन्हीं सब में मैंने “ikigaai” पुस्तक के बारे में भी माँ को बताया ताकि वह जीवन में ज़रूरी परिवर्तन कर एक लम्बी और स्वास्थ्य आयु जिएँ.
मेरे पापा का एक लम्बे समय से मुँह में परेशानी का इलाज चल रहा था. मेरे पिता बहुत लापरवाह हैं, और वो किसी की नहीं सुनते. शायद ये आदत मेरी उन्ही से आई हैं. 6 महीनो से वो अपने मन मर्ज़ी डॉक्टर से इलाज करवा रहे थे, और अंत में जब परेशानी बढ़ गयी, तो डॉक्टर ने उन्हें सर्जरी बतायी.
बीते 20 वर्ष से वह शुगर के मरीज़ हैं, पर उनके खान-पान को देख कर लगता नहीं की उन्हें यह एक बीमारी लगती है. बहुत हाल तक मुझे लगता था 300-350 शुगर तो नार्मल होती होगी क्योंकि पापा की हमेशा इतनी ही रहती थी और मीठा, घी, चावल से उनकी ख़ासा मित्रता रहती हैं. ख़ैर शुगर कम करने के लिए 10 दिन का कड़ा परहेज़ कर उनकी शुगर 114 पहुँच गयी. साथ ही सर्जरी से पहले डॉक्टर ने पापा के बायें गाल से एक छोटा सा टुकड़ा निकाल कर biopsy के लिए बम्बई भेज़ दिया, क्योंकि उनके गाल में एक पैच (patch) विकसित हो गया था.
पापा के अनुसार ये उनके उल्टी करवट में लेटकर दांतों द्वारा दबाव के कारण खट्ट पड़ गयी है. वहीं डॉक्टर का संशय कैन्सर था.
जैसे तैसे कर के 10 दिन भी बीत गये. अब कैन्सर की रिपोर्ट नॉर्मल रिपोर्ट की तरह पॉज़िटिव या नेगेटिव नहीं होती. एक आम व्यक्ति के लिए उसे पढ़ना काफ़ी कष्टकारी होता है, क्योंकि पैथोलॉजी में सारे विज्ञान सम्बंधित शब्दों से सराबोर एक काग़ज़ आपको थमा दिया जाता है और आपके अंदर की बेसब्री, बेबसी में तब्दील हो जाती है. एक तो उसमें समझ नहीं आता क्या लिखा है और दूसरा जब तक आप scientific शब्दों को डीकोड कर पाते हैं तब तक गूगल किए गए रीसर्च पेपर में कैन्सर शब्द कई दफ़े पढ़ कर आप सिहर चुके होते हैं.
जिस वक्त मैंने अपने भाई को फ़ोन किया तो उसके चेहरे का रंग कुछ उड़ा सा था. रिपोर्ट में वही आया जिसका संदेह हम सभी को था. पापा को मुहँ का कैन्सर निकला. 40 वर्षों से तम्बाकू का सेवन कर रहे किसी भी व्यक्ति से ऐसी ही कुछ अपेक्षा करी जा सकती हैं. पर इस बार कोई और व्यक्ति नहीं, वह व्यक्ति हमारे पिता हैं. पाँच वर्ष पूर्व एक हेल्थ चेकप के दौरान ही डॉक्टर ने पापा को कहा था की अगर उन्होंने तम्बाकू नहीं छोड़ी तो नली से खाना खाना पड़ेगा. उस रोज़ हल्के में ली गयी बात आज के भारी सत्य बन चुकी है.
यह खबर सुनके मैंने फ़ोन रख दिया. सुबह के 11:30 हो रहे थे और पूरा दिन और रात ऐसे ही निकल गए. शाम तक मैं एक ही जगह बैठी रही. कुछ करने को मन नहीं किया. मुझे बस ग़ुस्सा आ रहा था. याद आ रहा था कितने दफ़े उन्होंने तम्बाकू ना खाने के वादे करके तोड़ दिए थे.
ज़िद्दी हैं वो और अब बीमार भी!
उस दिन मैं पापा से मिलने भी नहीं गयी. बस यही लग रहा था, की उनसे मिलकर मुझे चिल्लाहट होगी, खीज होगी और उनसे कहने को मुझे बस यही होगा, “मिल गयी तसल्ली, कर ली अपने मन की! अब कराओ ऑपरेशन, सहो दर्द!”
परेशानी के भी कितने चरण होते हैं ना. आते वक्त सिर्फ़ उलझने और प्रश्न लेकर आती हैं. और जो हम उत्तर नहीं ढूँढ पाते तो खीज और चिड़चिड़ापन दे जाती हैं. ज्यों- ज्यों वह हमारे भीतर समाने लगती हैं, चिंतित और मौन कर जाती हैं. अब मौन के बोझ के नीचे ही हमारे परिवार को अपनी चिन्ताएँ दबा देनी होंगी, क्योंकि आने वाले समय में पापा को ठीक जो करना हैं.
यूँ तो सहेजने को दुःख बहुत पड़े हैं, पर सही मायनो में मन अब पसीच जाता है, क्योंकि आसान नहीं हैं माँ- बाप को बूढ़ा होते हुए देखना!
Us se bhi Zyaada kathin hota hai maa baap ko buchpan me khoo denaa...