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खिड़की

तुम्हें याद है, तुम्हारे घर की वो बड़ी सी खिड़की?


वो मेरी मनपसंद हुआ करती थी| क्योंकि वो मुझे दिखाती थी वो सब कुछ जिसे मैं देखना चाहती थी| बादलों की चादर, तारों की छत, सुबह की पहली धूप में नहाया शहर और एक अनंत आकाश|


लेकिन मेरी उससे बस एक ही शिकायत रहती थी| वो खिड़की न जाने क्यों खुलती नहीं थी| मैंने लाख कोशिश की कि उसमें कोई एक दरांच कहीं से हो जाएँ, जो मैं महसूस भी कर पाऊं वो सब जिसे में बस देख सकती थी| ताकि हवा की सरसराहट कुछ भीतर भी आ जाये, या बारिश के छीटें मुझे भी ज़रा सा धुल जाएँ| खैर, ऐसी कोई दरांच कभी मिली नहीं, और ऐसा कुछ हुआ नहीं|


लेकिन उस खिड़की के बंद होते हुए भी कभी मुझे खुद के बंद होने का एहसास नहीं हुआ| न कभी कोई घुटन| हाँ पर फिर भी वहां से झांकते हुए मैं हमेशा यही सोचती रहती थी कि बाहर की महक कैसी होगी|

आज उस खिड़की के बाहर हूँ|


वही हवा गालों को सुन्न कर जाती है, किसी किसी दिन तो चुभती सी है| और बारिश की बूंदे पूरा भिगा जाती है| अब एक बार वापिस उस खिड़की के भीतर से बाहर झाँकने को मन करता है|

लेकिन अब मुमकिन नहीं हैं, शायद तुमने वहां पर्दे लगा दिए हैं| मोटे कत्थई रंग के|




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