जाने वाला दिन हमेशा छोटा क्यों होता है?
दिन के बारह घंटे दस हो जाते है| नहीं नहीं, शायद आठ ही हो जाते है।
मैं समय बर्बाद नहीं करती, फिर भी घड़ी में पहिए लग जाते हैं।
उस दिन तो सुबह को भी आने की जल्दी होती है | फिर नाश्ता होते होते दिन चढ़ आ जाता है |
समझ नहीं आता सामान बांधू या संग कुछ देर बैठूँ|
फिर एक ख्याल झट आता है| क्यों ना कुर्सी को दीवार से सटा दूँ और उस पर पंजे के बल खड़ी होकर घड़ी तक पहुँच कर उसमे से या तो सेल निकाल लूँ या थोड़ा पीछे कर दूँ |
हाँ उससे होता कुछ नहीं पर यह विचार भर ही कुछ पल और बर्बाद कर देता है |
मैं कुछ नहीं कर सकती, आखिर जाने वाला दिन हमेशा छोटा जो होता है |
और फिर तुम्हारे जाते ही समय फिर अपनी रफ़्तार छोड़ देता है। सब धीमा ना जाने क्यों हो जाता है ?
घड़ी की टक टक और स्पष्ट हो जाती है। रुकती तो नहीं पर हाँ सुस्त ज़रूर हो जाती है।
बिल्कुल वैसे ही जैसे वो एक आने वाला दिन होता है, जब समय भी छुट्टी मनाने चला जाता है
और इंतजार को प्रेम हो जाता है इतमीनन से। देहरी से अंदर बाहर करते करते सौ चक्करों के बाद भी छोटी सुई ज़रा सी ही खिसकती है। सड़के लंबी हो जाती होंगी क्या?
अक्सर सोचती हूं,
थाम तो नहीं सकती मै किसी गति को,
पर शायद बदल दूं,
तुम्हारे उठ कर जाने वाले दिन को
तुम्हारे आने वाले दिन से।
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