तुम अब कुछ कहते नहीं
पर गुम होती तुम्हारी कविताओं के अल्फ़ाज़
सड़क पार,
मैंने उस पेड़ पर बने घोंसले में रखे देखें है
बोलूँ अब मैं इस हवा को,
थोड़ा ज़ोर चले
.
.
.
फ़िर उड़कर तुम्हारे वो शब्द
मेरी छत पर भी गिरें
कुछ को बटोर कर
और कुछ मैं अपने जोड़कर
तुम्हारी कही बातें
अपनी लिपि में लिख लूँगी
अगर होंगे उनमें कुछ प्रश्न भी
तो तुम्हारे मन के उत्तर
बना के गठरी
उसी घोंसले पर रख दूँगी !
पर हाँ,
शब्दों का ये कारोबार
होगा सब मन ही मन में
क्योंकिं असल में तो
तुम अब कुछ कहते नहीं!
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