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मैं ठीक हूँ, तुम ठीक हो?

-तुम ठीक हो?

-मैं ठीक हूँ |

हाँ, ठीक हूँ |

बस तीन दिन हुए, गैस नहीं मिल रही | फल खा खाकर, बिन नवरात्र मेरे रोज़े हो गए | बारिश है, कि हर शाम शुरू हो जाती है| कबसे तो मैंने बर्फ वाले पहाड़ भी नहीं देखे| और ये कंबख्त बादल! इन्होने जाने कौनसी जिद्द मान ली है| रोज़ रात को आ जाते हैं मुझे डराने | ये हवा भी तो इनसे मिली हुई है| कभी खिड़की खटकताती है तो कभी रसोई का कोई बर्तन पटक देती है |


पर मैं ठीक हूँ, क्योंकि आज दसवां दिन हो गया खुद को बुद्धु बनाते हुए, कि मुझे अकेले डर नहीं लगता | पर जब रात को ये लाइट चली जाती है, तब मामला थोड़ा बिगड़ जाता है | हाँ, मोमबत्ती तो रखी हुई है, पर उसमे तो एक चम्मच की परछाई भी डरावनी लगती हैं |


सुबह डर नहीं लगता| आसमान जो दिखता है| दस दिन में पंद्रह बार तो रजाई गद्दे को भी धूप दिखा दी | मैंने तो सारे कपड़े भी धुल दिए हैं | वो फर्श की मेट और पीछे वाली खिड़की के पर्दे भी| बस किचन का एप्रिन रह गया | और उसकी पीछे वाली गांठ को रोज़ फसना होता है| उसको सुलझाते सुलझाते मेरी रात वाली चाय भी एक की आधी हो जाती है |


एक किताब भी निकाली है पढने के लिए| पर मन नहीं करता | उसको पढने के बाद उसे सुनाने का भी तो मन करेगा न फिर | तो बस अलट पलट लेती हूँ |

बस इसी सब में दिन कट जाता है |


तुम्हारा भी शायद ऐसा कुछ कटता होगा| वक्त होगा तो बताना |


बाकी मैं ठीक हूँ |

तुम ठीक हो?



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