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सुनो

सुनो बस एक शब्द भर देखो ना कितना कुछ कह जाता है।

कैसे हम पूरी बात करने से पहले ही समझ लेते हैं कि आने वाले शब्दों से बनी पंक्ति क्या होगी।

सुबह-सुबह तुम्हारा "सुनो" मुझे बता जाता है कि आज गुड़ की चाय पीने का मन है तुम्हें।

बैठक में सबके बीच बैठे तुमको मेरा "सुनो" समझा देता है कि ऊंची वाली अलमारी तक मेरा हाथ नहीं पहुँच रहा।

तुम आते हो, बिना कुछ कहे ऊपर रखा डिब्बा उतारते हो और चले जाते हो।


साड़ी से उलझती लड़ती मैं जब तैयार हो रही होती हूँ,

तुम्हारा "सुनो" कह देता है,"अच्छी लग रही हो।"

देर रात काम करने के बाद आधी नींद में मेरा तुमसे सुनो कहना,

तुमको बता देता है, "कल मुझे जल्दी उठा देना।"

दिन भर के उन तमाम पलों में हम कितनी दफ़े अपनी बात की शुरुआत सुनो से करते हैं। और बात पूरी होने से पहले ही सुन लेते हो तुम, समझ लेती हूँ मैं की हमें क्या कहना हैं।

उत्साह, दुःख, प्रेम, क्रोध, हंसी, थकन, सवाल और ना जाने कितना कुछ बस यह एक शब्द बता जाता हैं।


पर तुम्हें पता है! यही शब्द मुझे कितना भारी लगता है जब काम पर बाहर जाते वक़्त तुम मेरा सामान गाड़ी में रखते हो।

मैं गाड़ी में बैठती हूँ, तुम खड़े मुझे देखते हो,

उस वक़्त दबी सी आवाज़ में तुम कहते हो "सुनो"

उस वक़्त दुखी मन से मैं सुनती हूँ,

"अपना ध्यान रखना!"



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